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- समसामयिक
शासन में जनता की भागीदारी
भारतीय संविधान
की मूल भावना है, ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार।’ यानी
हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी
को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना
इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के
व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। क्या यह संभव है कि
देश के विकास में नागरिकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करके देश में सच्चे
प्रजातंत्र का माहौल बनाया जाए? अगर ऐसा हो सका तो यह देश
में प्रजातंत्र की मजबूती की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।
लोकतंत्र में
तंत्र नहीं, बल्कि ‘लोक’
की महत्ता होनी चाहिए। तंत्र का महत्व सिर्फ इतना-सा है कि काम
सुचारू रूप से चले, व्यक्ति बदलने से नियम न बदलें, परंतु इसे दुरूह नहीं होना चाहिए और लोक पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जब
ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र सफल होगा, लेकिन ऐसा होने के
लिए हमें अपने आप को बदलना होगा, हर नागरिक को अपने आप को
बदलना होगा। यह काम कोई सरकार नहीं कर सकती, प्रशासन नहीं कर
सकता, लोग कर सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी
क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य
और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता
है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों
के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और
राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकते हैं।
महत्वपूर्ण यह
है कि क्रांति से पहले हमें तय करना होगा कि आखिर हम कैसी क्रांति चाहते हैं?
इस क्रांति के परिणाम क्या हों? इन पर विचार
किये बिना हमारी हर क्रांति अर्थहीन होगी।
विश्व भर में अब
तक की सभी क्रांतियों का एक ही उद्देश्य रहा है और वह है कि सबको जीवन में चार तरह
की स्वतंत्रताएं मिल पायें। वे हैं, अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, अभावों
से छुटकारा और भय से आज़ादी। भारतवर्ष में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और
मनपसंद धर्म चुनने, धर्म-निरपेक्ष होने अथवा नास्तिक होने की
स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन हमारे देश की जनता के एक बहुत
बड़े भाग के लिए अभावों से आज़ादी और भय से आज़ादी अभी एक सपना है। शिक्षा सेवा,
सामान्य चिकित्सा सेवा का अभाव, पीने योग्य
पानी की समस्या, सफाई का अभाव, रोज़गार
की कमी, भूख और कुपोषण आदि समस्याएं, महंगाई,
भ्रष्टाचार आदि समस्याएं विकराल हैं और आम आदमी को इनसे राहत की कोई
राह नज़र नहीं आती। हमारी अगली कोई भी क्रांति ऐसी होनी चाहिए जो जनता को अभावों
और भय से आज़ादी दिलवा सके।
दुर्भाग्यवश,
हमारे राजनेताओं के स्वार्थी व्यवहार के कारण प्रशासन तंत्र भी
भ्रष्ट हो गया है और चंूकि प्रशासन तंत्र या नौकरशाही इन राजनेताओं से भी ज्य़ादा
ताकतवर है, अत: आज नौकरशाही राजनीतिज्ञों से भी ज्यादा
भ्रष्ट, निरंकुश और असंवेदनशील हो गई है और जनता की समस्याओं
से इसका कोई वास्ता नहीं रह गया है। अत: शासन व्यवस्था में ऐसी संस्थाओं और
प्रावधानों का समावेश आवश्यक हो गया है कि अधिकारियों और राजनेताओं पर अंकुश रहे
तथा वे मनमानी न कर सकें। इसके लिए शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी
आवश्यक है।
दिल्ली में बाबा
अन्ना हज़ारे के आंदोलन के बाद उनसे हुए समझौते के अनुसार यह पहली बार संभव हुआ कि
किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के लोगों का सीधा हस्तक्षेप स्वीकार
किया गया। स्थानीय स्तर पर भी इस पहल को दुहराया जा सकता है और स्थानीय स्वशासन के
मामलों में जनता के प्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है। पश्चिम बंगाल की
ममता सरकार की यह घोषित नीति है कि हर फैसले में जनता की भागीदारी को बढ़ावा दिया
जाएगा। भविष्य ही बताएगा कि पश्चिम बंगाल में भी यह नीति किस हद तक लागू हो पाती
है और नौकरशाही इसे कितना सफल होने देती है, पर यदि
यह संभव हो पाया तो यह नीति भी एक मिसाल बनेगी।
बाबा अन्ना
हज़ारे के दिल्ली के पहले आंदोलन के बाद बाबा रामदेव के नाटक तथा सरकारी रवैये से
जन लोकपाल बिल के निर्माण में जनता की भागीदारी के समझौते में फच्चर पड़ गए हैं और
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकपाल बिल के सरकारी प्रारूप को स्वीकृति दे दी है। सरकार
और अन्य राजनीतिक दलों के व्यवहार से यह प्रतीत होता है कि भविष्य में किसी कानून
के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के प्रतिनिधियों को भी शामिल किये जाने की
संभावनाएं धूमिल हो गई हैं। परंतु यदि यह प्रक्रिया जारी रहती और अन्य कानूनों के
निर्माण के समय भी कानूनों को ज्य़ादा व्यावहारिक बनाने के लिए निर्वाचित
जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ जनता के अन्य नुमांइदों की भी राय लिये जाने की
प्रक्रिया को जारी रखा जाता तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना तथा लोकतंत्र में लोक की
सत्ता स्थापति करना संभव हो जाता। अभी हम संसद की संप्रभुता के नियम पर चल रहे
हैं। लेकिन यदि संसद की संप्रभुता के नियम को बदल कर या उसमें कुछ ढील देकर समाज
के चुनिंदा लोगों की भागीदारी करनी हो तो भी हमें कई अन्य मुद्दों पर विचार करना
होगा।
मान लीजिए कि
कभी कोई स्थिति विस्फोटक रुख अख्तियार कर ले, दंगे
हो जाएं और कई जानें चली जाएं तो जवाबदेही किसकी होगी? चुने
हुए जनप्रतिनिधियों की या समाजसेवी लोगों की? क्या यह आशंका
गलत है कि अब कोई अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति भूख हड़ताल की धमकी देकर सरकार को सचमुच
ब्लैकमेल ही करने पर नहीं उतर आयेगा? मान लीजिए यदि श्री
अन्ना हज़ारे के समर्थन वाला जन लोकपाल बिल बन गया और उसकी वजह से समस्याएं आईं तो
हम जवाबतलबी किससे करेंगे? अत: जनता की भागीदारी की एक
सुनिश्चित सीमा और व्याख्या होनी चाहिए ताकि भविष्य में कभी अराजकता की स्थिति न
बने। आज स्थिति दूसरी है। भ्रष्टाचार अंतहीन हो जाने की वजह से देश परेशान है और
सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं लग रही है। यह एक
विशिष्ट स्थिति है। इसमें श्री अन्ना हज़ारे की दखलअंदाज़ी का देश भर ने स्वागत
किया है। परंतु यह सच है कि हमें सोच-समझ कर तय करना होगा कि सरकार की निरंकुशता
पर रोक लगाने के लिए निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का स्वरूप क्या हो?
ऐसा अभी ही किया जाना आवश्यक है ताकि बाद में कभी इस नीति के कारण
अव्यवस्था अथवा अराजकता की स्थिति न बन सके।
(लेखक एक वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं।)
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Leslie Alexander
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