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- समसामयिक
टैक्स, पेट्रोल और सब्सिडी
तेल कंपनियों ने
एक बार फिर पेट्रोल के दाम बढ़ा दिये हैं। वर्ष 2008 के बाद एक साथ 5 रुपये प्रति लीटर बढ़ाए गए हैं जो
इस कैलेंडर वर्ष की दूसरी सबसे बड़ी बढ़ोत्तरी है। पिछले 11
महीनों में यह बढ़ोत्तरी नौवीं बार की गई है। हालत यह है कि पेट्रोल के दाम विमान
के ईंधन के दाम से भी ज्य़ादा हो गए हैं। चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद की गई यह
बढ़ोत्तरी सचमुच चुभने वाली है। अभी डीज़ल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि की
आशंका अलग से है। अभी इस पर मंत्रियों की बैठक होने वाली है।
सरकारें पेट्रोल
के दाम बढ़ाने से इसलिए भी ज्य़ादा नहीं हिचकतीं क्योंकि पेट्रोल को शहरी आदमी के
उपयोग की वस्तु माना जाता है और शहरों में मतदाता ऐसी बढ़ोत्तरी को लेकर इक_े नहीं होते या उग्र विरोध नहीं करते। यही कारण है कि डीज़ल के दाम बढ़ाने
में कभी जल्दीबाज़ी नहीं की जाती जबकि पेट्रोल के दाम बढ़ाते समय सिर्फ चुनाव को
ध्यान में रखा जाता है।
यह एक पुरानी
बहस है कि पेट्रोल के दाम बढऩे से महंगाई का दुष्चक्र और गहरा होगा तथा आम आदमी की
कठिनाइयां और भी बढ़ जाएंगी। पर शायद असली मुद्दे की ओर आम जनता का ध्यान गया ही
नहीं है। सरकारें खूब शोर मचाती हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की
कीमतें बढ़ जाने के कारण उन्हें दाम बढ़ाने पड़ते हैं और तेल कंपनियां बहुत घाटे
में तेल बेचती हैं तथा उनके घाटे की आंशिक भरपाई के लिए तेल की सब्सिडी पर बड़ी
रकम खर्च की जाती है ताकि आम आदमी पर ज्य़ादा बोझ न पड़े। वस्तुत: यह एक सफेद झूठ
है।
सच्चाई यह है कि
पेट्रेाल के दाम में टैक्स की हिस्सेदारी बहुत ज्य़ादा है। केंद्र और राज्य सरकारें
पेट्रोल पर भारी टैक्स वसूलती हैं। केंद्र सरकार कस्टम ड्यूटी के तौर पर 7.5 प्रतिशत, एडिशनल कस्टम ड्यूटी के तौर पर 2 रुपये प्रति लीटर, सेनवेट के 6.35 रुपये, अतिरिक्त एक्साइज़ ड्यूटी के 2 रुपये और स्पेशल एडिशनल एक्साइज़ ड्यूटी के 6 रुपये
वसूलती है। इसके अलावा सरचार्ज, सेस और एंट्री टैक्स अलग से
हैं। राज्य सरकारें भी टैक्स वसूलने में पीछे नहीं हैं। विभिन्न राज्य सरकारें
पेट्रोल पर 20 प्रतिशत से 30 प्रतिशत के
बीच वैट वसूलती हैं। इतने ज्य़ादा टैक्स के बाद भी सब्सिडी को लेकर सरकारें यह
प्रोपेगैंडा करती हैं कि तेल कंपनियों को बहुत अधिक घाटा हो रहा है और काफी
सब्सिडी देने के बावजूद इस घाटे की केवल आंशिक रूप से ही भरपाई हो पाती है।
हम पहले भी कह
चुके हैं कि भारतवर्ष में टैक्स इतने ज्य़ादा मदों में वसूला जाता है और टैक्स की
दर इतनी ज्य़ादा है कि सरकारी टैक्स के कारण आम आदमी महंगाई के दुष्चक्र में पिसता
चला जा रहा है। आम जनता की गाढ़ी कमाई का यह हिस्सा नौकरशाहों के भारी-भरकम वेतन
पर खर्च हो जाता है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में अनाप-शनाप वृद्धि हो रही है
जिससे सरकार का खर्च बढ़ रहा है और आम आदमी को सब्सिडी का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा
है।
सरकार जो इतने
सारे टैक्स वसूलती है, उनका कहीं कोई
हिसाब-किताब नहीं है कि वह टैक्स कहां और कैसे खर्च हो रहा है। न ही यह बताया जाता
है कि इस टैक्स का कितने प्रतिशत किस मद में खर्च होता है। विपक्षी दल भी जनता को
पूरी जानकारी दिये बिना सिर्फ सत्तासीन राजनेताओं के पुतले जलाते हैं जिससे उन्हें
मीडिया पब्लिसिटी मिलती है। सरकार, विपक्ष और नौकरशाही का यह
खेल अंतत: जनता के लिए अभिशाप बनता है।
क्या आपने कभी
सोचा है कि आपको कुल कितना टैक्स देना पड़ता है? लगभग हर व्यक्ति इन्कम टैक्स देता है, इसके अलावा
विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की खरीद पर आप वैट या सर्विस टैक्स भी देते हैं। आप रोड
टैक्स देते हैं, प्रापर्टी टैक्स देते हैं, हाइवे पर चलने के लिए टोल टैक्स देते हैं, कुछ
राज्यों में प्रवेश के लिए आप एंट्री टैक्स देते हैं, आपको
कुछ उपहार में मिले तो आप गिफ्ट टैक्स देते हैं। व्यवसायियों, उद्यमियों, और कारपोरेट कंपनियों को कई और तरह के
टैक्स भी देने होते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष टैक्स के इतने प्रकार हैं कि आप अपनी
आय का 50 से 70 प्रतिशत तक, जी हां, 50 से 70 प्रतिशत तक
टैक्स में दे डालते हैं लेकिन चूंकि बहुत से टैक्स आपकी जेब में आपकी आय आने से
पहले ही कट जाता है, इसलिए आपको उसका पता भी नहीं चलता।
केंद्र अथवा
राज्य सरकारों की ओर से टैक्स से होने वाली आय का कोई हिसाब-किताब नहीं दिया जाता
कि किस मद से कितना टैक्स आया और उसे किस प्रकार खर्च किया गया। यह इतना बड़ा
गोलमाल है कि आम आदमी तो इस चक्कर में सिर्फ घनचक्कर ही बनता है। जो लोग टैक्स अदा
करते हैं,
उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनके लिए क्या किया जा रहा है। टैक्स
वसूलने की चिंता यदि सरकार को है तो संबंधित क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी भी
उसे ही देखनी होगी। सरकार केवल खजाना भरने में लगी रहती है। सरकार के आय-व्यय में
ईमानदारी, पारदिर्शता व न्यायधर्मिता का सर्वथा अभाव है
जिससे टैक्स की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। होना तो यह चाहिए कि
वसूले गए टैक्स का आधा हिस्सा उस क्षेत्र के विकास पर लगे, जहां
से टैक्स आया और लोगों को स्पष्ट दिखे कि उनका पैसा उनके क्षेत्र में लग रहा है।
भारी भरकम टैक्स के कारण टैक्स चोरी होती है जिससे काला धन बनता है और भ्रष्टचार
की जड़ें गहरी होती हैं। काला धन महंगाई बढ़ाता है और आतंकवाद को प्रश्रय देता है।
यह एक ऐसा दुष्चक्र है जिसे समझे बिना आम आदमी को टैक्स के नुकसान का अंदाज़ा भी
नहीं हो सकता।
अब समय आ गया है
कि जनता पर लगने वाले हर टैक्स की गहराई से समीक्षा की जाए। हमें याद रखना होगा कि
सरकारें इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगी, क्योंकि
टैक्स से आने वाली अतुल धनराशि राजनेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार से फूले पेट
को भरने में खर्च होती है। जब तक इसके लिए कोई व्यवस्थित आंदोलन नहीं होगा तब तक
सरकार इस पर कोई कार्यवाही नहीं करेगी। इस दुष्चक्र से बचने के लिए हमें जनता के
हर वर्ग को साथ लेना होगा, उन्हें टैक्स के प्रभाव के बारे
में शिक्षित करना होगा। या फिर, इसके लिए भी हम किसी अन्ना
हज़ारे की राह देखेंगे ?
- पी.
के. खुराना (लेखक एक वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं।)
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Leslie Alexander
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