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अर्थव्यवस्था और काला धन


सब जानते हैं कि भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था के लिए काला धन बहुत बड़ी चुनौती है। वस्तुत: काले धन की एक समानांतर अर्थव्यवस्था है जिसके बारे में लंबे समय से चर्चाएं हो रही हैं लेकिन कोई समाधान नहीं मिल रहा है। हमारे देश में योग्य विचारकों और अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है और बहुत से विद्वानों ने इस समस्या के हल के लिए कई समाधान सुझाए हैं, तो भी मुझे लगता है कि खुद समस्या पर ही नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।

कुछ दशक पूर्व तक चंबल डाकुओं का घर था। सरकार और जनता दोनों ही डाकुओं से परेशान थे। ऐसे में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सरकार और डाकुओं से बात करके डाकुओं को आम माफी दिलवाई और उनके पुनर्वास की योजनाएं बनवाईं तथा डाकुओं के एक बहुत बड़े समूह से आत्मसमर्पण करवाया। इस घटना का उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि जब समस्या हद से ज्यादा बढ़ जाए तो उसे सुलझाने के लिए सामान्य नियम और कानून काम नहीं करते बल्कि कुछ नये और क्रांतिकारी उपाय ढूँढऩे आवश्यक हो जाते हैं। काले धन की समस्या की भी आज वही हालत है जब सामान्य कानूनों की मदद से इस समस्या का हल संभव नहीं लगता और हमें कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।

समस्या का हल ढूंढऩे से पहले हमें समस्या की जड़ तक पहुंचना होगा। सब जानते हैं कि भारत का संविधान वकीलों का स्वर्ग माना जाता है क्योंकि इसकी भाषा इतनी क्लिष्ट और कानून इतने लंबे, अस्पष्ट और विरोधाभासी हैं कि उन्हें भिन्न-भिन्न ढंग से परिभाषित किया जा सकता है। उससे भी बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश कानून व्यावहारिक नहीं हैं। सच तो यह है कि बहुत से नियम और कानून ही अपराध, चोरी, काला बाजारी और भ्रष्टाचार का कारण बन रहे हैं। इसे समझाने के लिए कुछ ही उदाहरण काफी हैं।

यदि आप चुनाव लडऩा चाहते हैं तो आपको एक निश्चित सीमा में खर्च करने की अनुमति है, अन्यथा वह भ्रष्टाचार है। आप मतदाताओं को उनके घर से मतदान केंद्र तक लाने का प्रबंध नहीं कर सकते, उन्हें कोई सुविधा देना भ्रष्टाचार का दर्जा रखता है। चुनाव लडऩे के लिए धन की निश्चित सीमा इतनी नाकाफी है कि उस सीमा में चुनाव लड़ पाना व्यावहारिक रूप से संभव ही नहीं है। हमारे जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार का सहारा लिये बिना चुनाव जीत ही नहीं सकते।

उस दौरान राज्य सरकार भी विकास की नई योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती। हर राज्य में पंचायत के चुनाव, नगरपालिकाओं और नगर निगम के चुनाव, विधान सभा के चुनाव और लोकसभा के चुनाव होते हैं जो अक्सर अलग-अलग समय पर होते हैं और उस समय चुनाव संहिता लागू हो जाने के कारण विकास की योजनाओं पर विराम लग जाता है। यानी, चुनाव के समय राज्य का विकास भी भ्रष्टाचार है।

कोई भी नया उद्योग लगाने से पहले आपको कई विभागों से कई तरह की अनुमतियां लेनी पड़ी हैं। अनुमतियां प्राप्त करने की यह प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है और छोटी-छोटी बातों को लेकर अधिकारी तमाम आवश्यक और अनावश्यक आपत्तियां खड़ी कर देते हैं। मेरे एक मित्र को हरियाणा के शहर करनाल में पांच सितारा होटल के निर्माण के लिए 42 विभिन्न अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने पड़े जिनमें से एक एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया की अनुमति भी शामिल है जबकि करनाल में कोई हवाई अड्डा नहीं है और सबसे नजदीकी हवाई अड्डा या दिल्ली है या चंडीगढ़, जो उनके होटल से एक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा दूर है।

संपत्ति की खरीद-फरोख्त में काले धन की बड़ी भूमिका है। टैक्स की अदायगी में प्रचलित नियमों के कारण काले धन का साम्राज्य बढ़ता चला जा रहा है। जब व्यापार आरंभ करने या चलाते रहने के लिए, बैंक से कर्ज लेने के लिए, राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए, चुनाव लडऩे के लिए, स्कूल-कालेज खोलने के लिए, टैक्स चुकाने के लिए लंबे, अस्पष्ट और अव्यावहारिक कानूनों से पाला पड़ता है तो ज्यादातर लोग जिस मित्र, शुभचिंतक या विशेषज्ञ की राय लेते हैं, वह उन्हें भ्रष्टाचार की राह अपनाने के लिए राज़ी कर लेता है। विवश व्यक्ति एक बार भ्रष्टाचार की राह पर निकला तो फिर उसे भ्रष्टाचार बुरा नहीं लगता।

एक ही विषय पर बना कानून भी इतना लंबा, अस्पष्ट और बिखरा हुआ हो सकता है कि खुद वह कानून भ्रष्टाचार और काले धन के जन्म का कारण बन जाता है। सेवा कर, यानी, सर्विस टैक्स की ही बात करें तो एक समय ऐसा भी था जब इस एक अकेले टैक्स पर भी सरकार की ओर से 1300 के लगभग सर्कुलर जारी किये गए थे। आप समझ सकते हैं कि इतने सर्कुलरों में बंटे हुए नियमों को कोई वकील या चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) भी याद नहीं रख सकता।

कानूनों की संख्या भी इतनी ज्यादा है कि हमारा संविधान कानूनों का जंगल बन गया है। जब राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे तो सरकार की ओर से लोकसभा में नया कानून बनाने के लिए एक ऐसा बिल पेश किया गया, जिस पर पहले से ही कानून बना हुआ था। तब के विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने इस ओर ध्यान दिलाया। सरकार की किरकिरी तो हुई पर सबक यह है कि यदि सरकार के विद्वान और साधन संपन्न अधिकारी भी सब कानूनों के बारे में जानकारी नहीं रख सकते तो बेचारे आम आदमी की बिसात ही क्या है।

इन उदाहरणों का एक ही आशय है कि हम किसी को भ्रष्टाचारी बताने से पहले अपने कानूनों पर नज़र डालें। अक्सर मीडियाकर्मी भी कानून के व्यावहारिक पक्ष को ध्यान में रखे बिना भ्रष्टाचार की कहानियों का भंडाफोड़ करते हैं। सच कहा जाए तो अधिकांश मीडिया घराने भी प्रचलित कानूनों के शत-्रप्रतिशत पालन का दावा नहीं कर सकते। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि काला धन सफेद होकर देश के विकास में लगे तो हमें नए नज़रिए से सोचने की आवश्यकता है।

इस बात पर बहुत चर्चा हो चुकी है कि देश से बाहर और देश के भीतर काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था मौजूद है और यदि यह सारा धन सफेद हो जाए तो हमारी अधिकांश समस्याओं का हल हो जाएगा, गरीबी दूर हो जाएगी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के रोड़े दूर हो जाएंगे। यह विचार काले धन की अर्थव्यवस्था का एकांगी विश्लेषण है। यदि हम समस्या को समग्रता में नहीं देखेंगे तो समस्या का स्थाई और लाभकारी हल कभी नहीं हो सकेगा। अब हमें समस्या से बचने और शुतुरमुर्गी दृष्टिकोण अपनाने के बजाए समस्या के सही निदान की ओर ध्यान देना होगा। वह निदान है, कानूनों की संख्या में कमी और कानूनों का सरलीकरण।

बाबा अन्ना हजारे के साथ समझौते में यह पहली बार संभव हुआ है कि किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के लोगों का सीधा हस्तक्षेप स्वीकार किया गया है। यदि अन्य कानूनों के निर्माण के समय भी यही या ऐसी कोई अन्य मान्य प्रक्रिया अपनायी जाए और कानूनों के व्यावहारिक पक्ष पर भी ध्यान दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि काले धन की समस्या पर काबू न पाया जा सके। वस्तुत: इससे सिर्फ काले धन की ही नहीं, बल्कि बहुत सी दीगर समस्याओं पर भी काबू पाया जा सकता है।         

(लेखक एक वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं।)