हाँ, अब भाव तथा रस धुरी से आगे चिंतन तथा सामाज सांस्कृतिक-सामाज वैज्ञानिक धुरी को केंद्र-अभिसारी बनाकर मुनासिब कार्यवाहियों की स्कीमें आयोजित करने की जरूरत है। ऐसी कार्यवाहियों में धुरी या केंद्र से अवसरण करके ज्ञान, कला, समाजविज्ञान, वैज्ञानिक संचारों का एकटò या विविध प्रकर्म सभी जानी-पहचानी दिशाओं को आत्मफैलाव देता है। सो वह इस पुस्तक में हुआ है। अतः हम शब्दार्थ इकाई को समाज-इकाई के विज्ञान तथा संस्कृति-बहुलता से गूँथते हैं। अतः एक सामाज सांस्कृतिक-वैज्ञानिक इकाई का संविधान होता है। इस रसवैचारिक निर्मिति में डगमग पाँवों, किंतु सुदृढ़ मुठिòयों के साथ बढ़ा गया है। सो, सौंदर्यबोधशास्त्र, देहभाषा, मिथकायन, नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र आदि का अधिग्रहण करने की चेष्टा तथा चर्चा हुई है। फलागम तो आपके प्रति लक्षित है। सो, ‘मुनासिब कार्यवाहियों’ के परिप्रेक्ष्य में शब्दरंजन-अर्थरंजन से काफी आगे ज्ञानरंजन-संस्कृतिरंजन से भी तालमेल हुआ है। फलतः आलोचना ‘आलोचिंतना’ होगी। हमारा बंधान ऐसा ही है। आइये, ऐसी आलोचिंतना तथा मुनासिब कार्यवाहियों को त्रिकाल- प्रतिध्वनित सलाम करें।
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